मेरी अभी-अभी मृत्यु हुई है। और मृत्यु के साथ
ही मैंने जाना कि मैं नाम, जात-पात, धन या अहंकार हूँ ही नहीं। मैं तो भावों का अनाम
गुलदस्ता हूँ जो सत्तर-अस्सी वर्ष के परमिट पर मनुष्य स्वरूप में धरती पर भेजा गया
था। और मुझ बेवकूफ ने भावों का आनंद तो लिया नहीं उलटा यह कीमती जीवन व्यर्थ हजार तरीके
के अहंकार पालने में बिता दिया। नीचे तो हाथ कुछ नहीं लगा पर देखते हैं कि ऊपर क्या
मिलता है?
...यहां
भीड़ लगी ही हुई है। जैसा सुना था वैसे ही यहां धरती पर जीये जीवन के आधार पर सबका आगे
का जीवन तय किया जा रहा है। मुझे तो स्वर्ग मिलना ही है। क्योंकि मैंने शास्त्रों का
और अपने धर्म का जीवनभर अनुसरण किया है।
...लेकिन
यह क्या? यहां इसे तो कोई क्राइटेरिया ही नहीं माना जा रहा है। यहां तो सीधा-सीधा तीन
सवालों पर आगे के जीवन का फैसला किया जा रहा है। पहला सवाल यह कि आपने बिना किसी को
चोट पहुंचाए अपने को कितना आनंद, मस्ती, शांति और सुकून से भरा? दूसरा यह कि आपने कितनों
को आनंद, शांति व सुकून पहुंचाए? और तीसरा यह कि जब मनुष्य जन्म मिला था तो सबका भला
हो सके ऐसा कोई बड़ा व धमाकेदार कार्य किया कि नहीं? लो मैं तो तीनों-के-तीनों तीन क्राइटेरिया
में फेल हो गया। मुझे तो एक पल का भी स्वर्ग-सुख नहीं दिया गया। मैं तो बेवकूफ बन ही
गया, न नीचे जी पाया न ऊपर जीने को मिला। ...पर आपके पास वक्त है, मेरे अनुभव से सीख
लो। अपना व दूसरों का जीवन आनंद से भरना ही ऊपर आगे का जीवन तय करने का एकमात्र क्राइटेरिया
माना जा रहा है। मंदिर, मस्जिद या चर्च के चक्कर लगाने का यहां कोई महत्व नहीं है।
- दीप त्रिवेदी
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