यह
बात हमेशा के लिए गांठ बांध लेना कि भीतर पाप है तो ही बाहर पाप है। यदि मनुष्य भीतर
के भावना की शुद्धता के लिए विश्वास से भरा है तो उसके लिए इस संसार में कुछ पाप नहीं।
...वह फिर कुछ भी कर सकता है। और कुछ भी कर सकने की क्षमता ही मनुष्य-जीवन की अंतिम
ऊंचाई है और अंतिम मकसद भी।
सोचो,
मीरा के भीतर कितनी शुद्धता रही होगी जो वह बेझिझक राज-परिवार छोड़ सड़कों पर नाचती फिरी।
जिसके भीतर जरा भी पाप होगा वह राजमहल छोड़ने तक की नहीं सोच सकता, सड़कों पर नाचना तो
बहुत दूर की बात है।
बुद्ध
जिनको पूरा भारत सलाम करता था, जिनका आचरण एक उदाहरण था, ने कितनी आसानी से एक वेश्या
के यहां रात गुजार ली थी। जब मन में पाप नहीं तो वेश्या क्या बिगाड़ लेगी? और जब मन
में पाप नहीं तो जमाने की सोच की चिंता कौन करे?
सो
मेहरबानीकर बाहर के पाप-पुण्यों की फेहरिस्त बनाने की बजाए भीतर इतनी शुद्धता पैदा
कर लें कि बाहर कुछ पाप-पुण्य बचे ही नहीं। बाकी तो पाप-पुण्यों की सूचियां पकड़ाने
वाले अपनी दुकानें चला रहे हैं, तथा उनके चक्कर में आने वाले अपना जीवन अकारण सहम-सहम
कर गुजार ही रहे हैं।
सो
उनको छोड़ो, परंतु आप तो समझदार भी है और आजाद भी; सो भीतर शुद्धता पैदा करने पर ध्यान
दो। भीतर भावना शुद्ध है तो शरीर ने क्या किया, कौन परवाह करता है?
- दीप त्रिवेदी
No comments:
Post a Comment