- ऐ भाई!
यह सुबह-ही-सुबह क्या बेचने आ गए?
क्या
सोसायटी के वॉचमैन ने तुम्हें रोका नहीं?
- वह मुझे
कैसे रोक सकता है? मैं अदृश्य हूँ और तुम्हारे भीतर बसा हुआ हूँ। अरे पगले, ध्यान से
सुन मैं भगवान हूँ। तू दिन-रात मुझे खोजता रहता है, सो मैंने सोचा कि आज तुझे अपने
वास्तविक स्वरूप से मिलवा ही दूं, ताकि यह जो तू व्यर्थ में मंदिर-मस्जिद और चर्च के
चक्कर लगा रहा है; वह बंद हो जाए।
- अच्छा!
तो क्या आप हमेशा मेरे साथ रहेंगे?
- देखो,
मैं तो यही चाहता हूँ। परंतु यह मेरे नहीं तुम्हारे हाथ में है। यदि तुम वाकई मुझे
पाना चाहते हो तो अपने भीतर से मोह, लोभ, भय, आशा, जलन, पक्षपात सब त्याग दो। मैं वादा
करता हूँ कि फिर मैं कभी तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगा।
- यह क्या
शर्त रख दी आपने? यह सब छोड़ दूंगा तो मैं जीऊंगा कैसे? इससे तो आप मंदिर-मस्जिद-चर्चों
में ही ज्यादा सीधा व्यवहार करते हो। पांच-पचास के चढ़ावे में उपलब्ध हो जाते हो। और
जब आप इतने सस्ते में उपलब्ध हो तो फिर मैं आपको पाने हेतु इतनी बड़ी कीमत चुकाऊं ही
क्यों?
- जैसी
तुम्हारी मरजी। पर वहां मैं नहीं, मेरे नाम पर बहुरूपिए बिठा दिए गए हैं। और इसी कारण
तुम्हारे जीवन का यह हाल है। खैर, समझो-न-समझो, मानो-न-मानो; जीवन तुम्हारा-निर्णय
तुम्हारा।
- दीप त्रिवेदी
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