मेरी अभी ताजा-ताजा ही मृत्यु
हुई है। मेरे शरीर को चिता पर लिटाया हुआ है। थोड़ी देर में ही चिता को जला दिया जाएगा।
लेकिन आश्चर्य यह कि मैं तो उस शरीर में हूँ ही नहीं। मैं तो यहां ऊपर आकाश में कहीं
अनजान की यात्रा पर निकल पड़ा हूँ। कमाल यह कि शरीर पूरा-का-पूरा नीचे है और मैं पूरा-का-पूरा
यात्रा पर निकल पड़ा हूँ। ...यानी मैं शरीर तो नहीं ही हूँ। धन, परिवार व मित्र भी सब-के-सब
नीचे मौजूद हैं। उनमें से भी कोई मेरा हिस्सा आज मुझे नजर नहीं आ रहा है। यह तो मैं
मूर्ख बन गया। मैंने पूरा जीवन अपने शरीर की चिंता में बिताया। उसके सुख-दुःख की खातिर
न जाने कितने कष्ट उठाए मैंने। और यह मित्र, परिवार तथा धन जिसे जीवनभर अपना मान इनके
आगे-पीछे घूमता रहा, कोई मेरा था ही नहीं। इन सबके चक्कर में मैं अपने को पहचान ही
नहीं पाया। स्वयं को कोई आनंद या सुख दे ही नहीं पाया। मेरा तो बमुश्किल मिला मनुष्यजीवन
ही व्यर्थ हो गया। खैर, मैं तो मूर्ख बन ही गया पर आपके पास अभी मौका है, अपने को पहचानो
और अपने लिए जीओ। ... वरना फिर एक दिन आप भी मेरी तरह पछताओगे परंतु तब तक बहुत देर
हो चुकी होगी।
- दीप त्रिवेदी
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