Friday, December 27, 2013

गालिब के जन्म दिवस पर

  

 
गालिब वह नाम है, जिसे भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में शायरी का पर्याय माना जाता है। उनकी शायरी की अदा ही यह थी कि बात भी गहरी होती थी और कहने का अंदाज भी निराला होता था।

          आज के इस मौके पर उनका एक शेर याद करना ही रहा।
 जब कुछ न था तो खुदा था,
 कुछ न होता तो खुदा होता
 डुबोया है मुझे होने ने
 ना होता तो क्या होता?
          वाह गालिब साहब, शायराना अंदाज में भगवान का रहस्य ही समझा गए। जब कुछ न था, यानी खुदा के घर से आया ही था, नन्हा बच्चा था, तब होने का दृढ़ एहसास नहीं था। अतः खुदा ही था। खुदा है क्या, यही कि जिसे अपने अलग से होने का एहसास नहीं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जिसे नाम, जात या धर्म का अहंकार नहीं। अर्थात् कुछ न था तब खुदा था।

          लेकिन बड़े होते-होते फंस गया। परिवार ने नाम दिया, बुजुर्गों ने मजहब दिया। दुनिया ने काम दिया, और गालिब हो गया। परंतु सोचो यह कि यदि यह सबकुछ न ओढ़ा होता, तो खुदा ही होता।

          और आज जीवन के इस मुकाम पर समझ रहा हूँ कि डुबोया है मुझे होने ने, यदि बचपन का होने के एहसास रहित वाला स्वरूप सम्भाल लिया होता, तो सोचो आज क्या होता? ...खुदा ही होता।

          ...वाह गालिब साहब! आपके बारे में सही ही कहते हैं कि आपका अंदाजे बयां ही कुछ और है।

-         दीप त्रिवेदी



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