- मैं अब स्वतंत्रता से जीना चाहता हूँ।
- तो तुम्हें रोका किसने हैं?
मनुष्य तो कायदे से होता ही स्वतंत्र है
और उसकी महत्ता भी सिर्फ स्वतंत्रता के
कारण ही है
पूरी प्रकृति में उसको छोड़ किसी को किसी
बात की स्वतंत्रता नहीं
- लेकिन मैं तो जीवन में अपना चाहा कुछ भी
करने को स्वतंत्र नहीं...
मुझे तो सबने मिलकर चारों ओर से घेर लिया
है।
- यह इल्जाम दूसरों को देना बंद करो
तुम खुद ही इस हेतु जवाबदार हो।
- क्या बात करते हो? भला मैं अपने को क्यों
गुलाम बनाऊंगा?
- यही तो बात है
अरे, मनुष्य को उसकी इच्छा के बगैर एक पल
को कोई गुलाम नहीं बना सकता
शारीरिक बंधन उसे हो सकते हैं
परंतु
मन से तो वह स्वयं ही बंधनों में बंधता चला जाता है
और हर बंधन अंत में भीतर एक उचाट ही पैदा
करता है
वह बंधन चाहे कितना ही प्यारा क्यों न हो?
- कैसे, जरा विस्तार से समझाओ...
- अभी समझाए देता हूँ
तुम सोचते हो कि जीवन में इतना करना ही
पड़ेगा
तो तुम उतना करने से बंध जाते हो
चुनाव तुम्हारा ही होता है, कोई जबरदस्ती
तुम पर नहीं करता
तुम पहले कुछ-कुछ चीजें चाहते हो
फिर
उन चाहों को पूरा करने के बंधन में बंध जाते हो
यहां भी बंधन के जवाबदार तुम खुद हो
वैसे ही कई रिश्ते तुम बनाना चाहते हो और
कई रिश्ते तुम टिकाए रखना चाहते हो
फिर उस दिशा में प्रयास करने से बंध जाते
हो
और आगे धार्मिक और सामाजिक बंधनों का तो
कहना ही क्या
वर्ष भर के कैलेंडर से ही बंध जाते हो
कब उपवास करना और कब चर्च में जाना
...कुल-मिलाकर प्रकृति की ओर से तो तुम
जंगल के शेर के रूप
में पैदा हुए होते हो पर स्वयं को
बाहरी प्रभावों से ट्रेंड कर सर्कस का शेर
बना लेते हो।
- अब वह तो बन ही गए हैं, पर आगे फिर जंगल
में जाकर दहाड़ सकें उसका उपाय क्या?
- उसका सीधा और पहला उपाय यही कि यह अच्छे
से जान लो
तुमने ही तुमको गुलाम बनाया हुआ है
अतः इस बात के लिए दूसरों को दोष देना पूरी
तरह से बंद कर दो
...और जब खुद दोषी हो तो भीतर झांकने से
मार्ग मिल ही जाएगा।
- ओ के, थैंक यू।
-
दीप
त्रिवेदी
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