एकबार एक नवयुवक ने अपने संप्रदाय के
धार्मिक गुरु से प्रभावित होकर संन्यास ले लिया। अब संन्यास तो संन्यास होता है। रूखी-सूखी
खाना, स्त्रियों की तरफ भूलकर भी न देखना आदि-आदि। ...बस यही सब वहां का जीवन होता
है। लेकिन नवयुवक को इससे कोई एतराज न था। उसने तो प्रभु-दर्शन की आस में संन्यास लिया
था। परंतु पांच वर्ष ऐसा कठिन जीवन बिताने के बाद भी जब बात नहीं बनी तो वह काफी चिड़चिड़ा
हो गया।
लेकिन
अचानक उसकी जिन्दगी में एक हसीन मोड़ आया। एक दिन वह बाजार में अनायास ही एक युवती से
टकरा गया। पांच वर्ष बाद युवती का पहला स्पर्श। सूखे प्रदेश में जैसे वर्षा हो गई।
उधर युवती का दिल भी उसपर आ गया। दोनों में पहली नजर का प्रेम हो गया। बस उसने आश्रम
छोड़ उस युवती के साथ घर बसा लिया।
दोनों
दूसरे गांव रहने चले गए। दिन-रात मेहनत कर तीन वर्षों में तो उन्होंने एक नदी किनारे
अपना खुद का एक कमरे का मकान भी बना लिया। दोनों एक-दूसरे को रोज अपने हाथ से खिलाते।
रोज रात भोजन के पश्चात् हाथ-में-हाथ डाले घूमने भी जाते। और खुश तो इतने थे कि मानो
तीनों जहां मिल गए हों। ...कायदे से तो मिल ही गए थे।
बस
एक दिन नदी किनारे वह युवक पानी में पांव डाले अकेले बैठा हुआ था। आसमान से हल्की-हल्की
बारिश हो रही थी। अचानक उसको क्या सूझा कि उसने दोनों हाथ आसमान की ओर उठाते हुए कहा-
वाह रे भगवान धन्य है तेरी लीला। पता संन्यास का देता है और रहता प्रेम में एक हो चुके
दो प्रेमियों के दिल में है।
- दीप
त्रिवेदी
No comments:
Post a Comment