गुरु का अर्थ है सच्ची राह दिखाने वाला।
कुछ सिखाने वाला। इस लिहाज से देखा जाए तो संसार गुरुओं से भरा पड़ा है। हर व्यक्ति,
हर वस्तु तथा हर परिस्थिति कुछ-न-कुछ सिखाती ही रहती है। और जब सिखाने हेतु इतने गुरु
उपलब्ध हैं तो संसार का हर व्यक्ति सफलता के शिखर क्यों नहीं छू रहा है? क्योंकि गुरुओं
की भले ही कमी नहीं संसार में, परंतु शिष्य बहुत कम है। अतः यह तय जान लो कि जब तक
मनुष्य चारों ओर गुरु खोजने वाली आंख नहीं जगाता, तब तक उसका जीवन सुख और सफलता से
नहीं भर सकता है।
लेकिन
आप क्या करते है? आप संसार के महानतम् गुरुओं जैसे क्राइस्ट, बुद्ध या कृष्ण जैसों
में से भी किसी एक को गुरु मानने को तैयार होते हैं। अब गुरु बनाने के मामले में इतनी
कंजूसी जो करेगा, वह सीखेगा कब और कैसे?
छोड़ो,
यह तो महानतम लोगों की बात हुई। लेकिन यदि सीखने वाली आंख हो, और गुरु बनाने की क्षमता
हो तो एक छोटा बच्चा भी कितना कुछ सीखा जाता है। वह चलते सीखना शुरू करता है तो कितनी
बार गिरता है। कितनी चोंटे भी लगती है। परंतु न डरता है न उत्साह छोड़ता है, और एक दिन
चलना सीख ही जाता है। बस हमें भी जीवन में असफलताओं से घबराना नहीं है, और ना ही उत्साह
छोड़ना है। और यह सिवाय बच्चों के और कोई नहीं सीखा सकता। सो, जो बच्चों को भी गुरु
बनाकर सीखने की क्षमता रखता होगा वही जीवन में आगे बढ़ सकता है।
वैसे
ही कभी मेहनत-मजदूरी कर पेट भर रहे मजदूरों के जीवन में भी झांक लेना। दिनभर की मजदूरी
के बाद भी उनमें से कई रात को परिवार के साथ हंस-खेल पाते हैं। और जीवन के तमाम कष्टों
के बाद भी दूसरे दिन तरोताजा होकर फिर काम पर पहुंच जाते हैं। और थोड़ा हम अपने को देखें,
तमाम सुख-सुविधाएं होने के बावजूद थके-थके घूमते हैं। चिड़चिड़े हो जाते हैं। यही मैं
कह रहा हूँ कि काश मजदूरों को गुरु बनाकर सीखने वाली आंख होती, तो जीवन न संवर गया
होता।
सो,
आज गुरुपूर्णिमा पर मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि गुरु के मामले में कंजूसी कभी नहीं
करनी चाहिए। याद रख लो कि जिसके जीवन में जितने गुरु उतना ही वह सुखी और सफल।
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दीप त्रिवेदी
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