Saturday, September 20, 2014

कहीं आप ही तो अपने को नहीं मार रहे हैं?


शायद ऐसा ही होगा। वरना तो जीवन में हर कोई कैसे इतना मर-मरकर जी सकता है? हालांकि इस बात को विस्तार से समझाऊं उससे पहले जीने और मरने का फर्क समझ लो। जीने का अर्थ है जो भीतर है वही बाहर है। मरने का अर्थ है जो भीतर है वह या तो बाहर उपलब्ध नहीं है, या फिर उपलब्ध होने के बावजूद आप उससे एक नहीं हो पा रहे हैं। यदि ऐसा है तो खुद अपने भीतर झांको, क्या भीतर-बाहर की ऐसी भिन्नता के वक्त आप मर नहीं रहे हैं? 

अब सवाल यह कि जब भीतर-बाहर की भिन्नता इस कदर मार रही है तो फिर आप इस भिन्नता में जीते क्यों हैं? इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला तो यह कि भीतर कुछ ऐसा हो जो बाहर उपलब्ध न हो फिर भी आप उसके सपने देख रहें हों या उस बाबत उड़ान भर रहे हों तब फिर तो आपको अपनी इस आदत के कारण भीतर-बाहर की भिन्नता के ऐसे दर्द बार-बार झेलने ही रहे। उड़ने की आदत सुधारे बगैर इन दर्दों से छुटकारा नहीं। दूसरा कारण कहूं तो वह थोड़ा आश्चर्य में डालने वाला है। अक्सर बाहर उपलब्ध होने के बावजूद व भीतर इच्छा होने के बावजूद मनुष्य उसे नहीं भोगता है। और इस तरह वह अकारण भीतर-बाहर की भिन्नता पैदा कर स्वयं को मारता है। और इसका एकमात्र कारण यह कि ऐसे लोग दूसरों की निगाह से जीने के आदी हो चुके होते हैं। इसे दूसरे शब्दों में कहूं तो दूसरा जो चाहे या जिसे अच्छा माने वे वही करने के आदी हो चुके होते हैं। यदि आप भी कुछ-कुछ ऐसे हैं तो यहां भी आपको स्वयं को बदलना होगा, वरना फिर आपका कुछ नहीं हो सकता है। आपको यहां भी हर दबाई इच्छा के साथ मरना ही रहा। 

मैंने स्वयं को मारने की पूरी सायकोलोजी समझा दी। उम्मीद है अब आगे रोज-रोज और बात-बात पर मरने से कैसे बचना इतनी समझदारी तो आप खुद ले ही आएंगे।

- दीप त्रिवेदी

No comments:

Post a Comment