कबीर, एक ऐसा नाम जो भारत व आसपास के लोगों के दिलों में
बसा हुआ है। शायद उनके दोहों से ज्यादा सुनी जाने वाली दूसरी वाणी इस संसार में नहीं।
उनके एक-एक शब्द से उनका भोलपन झलकता है। लेकिन उनका जीवन जानते हैं आप? वे जुलाहे
थे, चादरें बुनते थे। घर में खाने-पीने के लाले थे, परंतु बावजूद इसके भोले कबीर ठीक
से धंधा नहीं कर पाते थे। वे चादरें बना तो लेते पर बेचते वक्त पैसा उनसे नहीं मांगा
जाता था। उनकी पत्नी व पुत्र कमाल उनसे झगड़ते भी थे, उन्हें घर के हालात भी बताते थे,
कबीर सब समझकर धंधे पर ध्यान देने का वादा भी करते थे; परंतु ऐन वक्त पर फिर सब चौपट
हो जाता था। पूछने पर वे इतना ही कहते कि पैसे किससे मांगू? सबकुछ वही तो है। यह चादर
भी उसी का स्वरूप है, यह धागा जिससे चादर बुनी गई वो भी वही है, और जिसे बेची गई वह
तो उसका साक्षात् स्वरूप नजर आता है, अब उससे...उसको बुनकर उसे दे दिया उसमें लेन-देन
कैसे हो सकता है?
और यह कबीर कहने
के लिए नहीं कहते थे, उन्हें अपने दिल की अंतरतम गहराई में भी यही महसूस होता था। सोचो,
इसे कहते हैं भोलपन। जरा कल्पना करो कि ऐसे भोले के भीतर क्या मस्ती होगी? और एक हम
हैं जो मस्ती स्मार्टनेस से पाने की कोशिश कर रहे हैं, परिणाम में मस्ती तो मिल नहीं
रही उलटा रोज-रोज फ्रस्ट्रेशन ही बढ़ता जा रहा है। मैंने कबीर की मस्ती व उसका कारण
आप तक पहुंचा दिया। ...आगे स्मार्टनेस दिखानी है कि भोला बनना है, यह तय आपको करना
है।
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दीप त्रिवेदी
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