Tuesday, August 27, 2013

कृष्ण - गीता संवाद

भगवद्गीता   -   कृष्ण, आप कहते हैं कि मैं सनातन सत्य हूँ।
               मेरे भीतर प्रकृति के एक-से-एक राज छिपे पड़े हैं।
               सफलता के सारे सार-सूत्र मुझमें समाए हुए हैं।
               फिर भी आपके इतने मंदिर हैं और मेरे तो चन्द भी नहीं?
               और जो थोड़े-बहुत हैं उसमें भी आप ही छाए रहते हैं।
               ...ऐसा क्यों?

 कृष्ण हंसते हुए  - तो उससे तुझे या मुझे क्या फर्क पड़ रहा है?
               तेरे मंदिर हों या न हों, सनातन सत्य तो तुझमें ही समाया हुआ है।
               मेरे मंदिर बनाए जाएं, मेरी अर्चना की जाए...या मुझे सजाया जाए
               मनुष्य को हासिल क्या होना है?
               ...लेकिन मनुष्य मूर्ख है।
               तेरी अहमियत समझता नहीं और मेरे पीछे पड़ गया है।
               और मुझसे उसे कुछ मिलने वाला नहीं।
               तभी तो भारत में हरकोई मुझको पूजता है परंतु हाथ उनके कुछ नहीं लग रहा है।
               यदि मेरी जगह उसने तेरे मंदिर बनाए होते
               और वहां पर तेरी गहराइयों पर चर्चाएं की होती
               ...तो आज हर भारतवासी सुखी और सफल नहीं हो जाता?
               ...पूरा विश्‍व भारत का लोहा न मान चुका होता?


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