विन्सेंट
वेन गोह एक सच्चे चित्रकार थे। चित्रकारी ही उनका शौक था और चित्रकारी ही उनका धर्म
था। बस वे अपनी मस्ती में पेंटिंग्स बनाया करते थे। और जब भी कोई पेंटिंग बन जाती तो
उसे मित्रों के घर जाकर उनकी दीवारों पर टांग आया करते थे। लेकिन उस समय वेन गोह कोई
चर्चित चित्रकार तो थे नहीं, और फिर चित्रकारी की समझ भी वैसे ही बहुत कम लोगों में
होती है, सो वेन गोह के जाते ही मित्र वह पेंटिंग दीवार से उतार देते थे।
उधर
वेन गोह अपनी धुन में फिर उन्हीं मित्रों के यहां नई-नई पेंटिंग लेकर पहुंच जाया करते
थे। उन्हें यह अंदाजा ही नहीं होता था कि उनकी पुरानी पेंटिंग दीवार पर नहीं है, वे
निर्दोष तो फिर अपनी नई बनाई पेंटिंग दीवार पर लगा देते थे। वर्षों यह सिलसिला चलता
रहा।
...फिर
एक दिन ऐसा हुआ कि वेन गोह संध्या एक पहाड़ी की टॉप पर बैठे हुए थे। उस दिन उस पहाड़ी
की टॉप से देखा सूर्यास्त उन्हें इतना तो भा गया कि उन्होंने उस सूर्यास्त की पेंटिंग
बनाना तय किया। तय किया तो अगले दिन से भिड़ भी गए। और भिड़े तो ऐसे भिड़े कि पूरे वर्ष
भर उसी पहाड़ी पर डेरा जमा लिया। क्योंकि यह सूर्यास्त उन्हें इतना तो भा गया था कि
इसे वे जीवंत ही उतारना चाहते थे। अब जब इतनी लगन व कटिबद्धता हो तो सूर्यास्त को उनके
पेंटिंग बोर्ड पर जीवंत उतरना ही था।
...बस
उस एक पेंटिंग ने वेन गोह को वेन गोह बना दिया। पूरे विश्व में उनकी पेंटिंग्स की धूम
मच गई। नई-तो-नई, पुरानी पेटिंग भी हजारों-लाखों डॉलर में बिकने लग गई। उधर इसके चलते
उनके दोस्तों की भी उड़ के लग गई।
होगा!
सवाल यह कि यह सब हुआ कैसे? दीवानगी की वजह से। तो बस आपको भी यही दीवानगी अपनानी है।
किसी कार्य की ठान ली तो फिर दूसरी कोई बात कैसी? ...और जब ऐसी दीवानगी आएगी तभी आपसे
कोई ऐसा कार्य होगा कि आप अपने जीवन को सफल कह पाएंगे।
-दीप त्रिवेदी
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