यह वाकई
एक गंभीर चिंतन का विषय है। क्योंकि मनुष्य को जगत में लाती महिलाएं हैं। और उन्हें
पालती, पोसती व बड़ा भी महिलाएं ही करती हैं। इस दृष्टि से उनका दर्जा मनुष्य-जीवन में
सबसे बड़ा होना चाहिए। स्त्री मां बन के जन्म देती है, बहन बनके साथ निभाती है और प्रेमिका
बनकर जीवन संवारती है। इतना सब होने के बाद भी, उन्हें आगे बढ़ाने और बराबरी का अधिकार
देने की इतनी बात करने के बाद भी, यह हो नहीं पा रहा है।
हालांकि
हालात पहले से बेहतर हैं। आज महिलाएं राष्ट्राध्यक्ष से लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियों की CEO तक बन
गई हैं। मानना पड़ेगा कि आज के समाज ने महिलाओं को बेहतर अवसर प्रदान किए हैं। कोर्पोरेट्स
ने भी महिलाओं का खुलकर स्वागत करना शुरू कर दिया है। और हकीकत यह भी है कि मनुष्य
की आज की प्रगति, समाज और कोर्पोरेट क्षेत्र में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को ही आभारी
है।
परंतु
दुःख की बात यह है कि विश्व भर में तमाम धर्मों के ठेकेदार आज भी महिलाओं के साथ दोयम
दर्ज का ही व्यवहार कर रहे हैं। हालांकि सभी धर्मों की यह मानसिकता पुरानी है। सभी
धर्मों ने अपने अधिकांश भगवान व अवतार भी पुरुषों को ही माना है। कई धर्म ऐसे भी हैं
जो स्त्री को ही तमाम पापों का मूल मानते हैं। कई धार्मिक स्थलों पर आज के वैज्ञानिक
युग में भी महिलाओं का जाना वर्जित है। और विकसित-से-विकसित राष्ट्र में भी, धर्म के
नाम पर यह मान्यता तो मान्य है ही कि महिला पादरी, मौलवी, पंडित या मठाधीश नहीं बन
सकती?
...क्यों?
जिसने तुम्हें पैदा किया उससे यह अनूठा व्यवहार किस खुशी में? वैसे इन धर्म के ठेकेदारों
और उनकी मान्यताओं का न तो कोई महत्व है और न ही किसी महिला को पादरी या मौलवी बनकर
अपना जीवन बर्बाद करना है। ...परंतु सवाल सिर्फ इतना है कि धर्म जिसका मतलब ही सबको
प्रेम और सबको बराबरी का अधिकार देना होना चाहिए, वह कैसे विश्व की पचास प्रतिशत महिलाओं
की पॉप्यूलेशन को अपने प्रमुख पदों से नकार सकते हैं?
और
इस बात का सबसे गंभीर सायकोलोजिकल पहलू यह कि धर्म के ठेकेदारों के इस व्यवहार के कारण
ही वाकई महिलाओं के कॉन्फीडेंस पर बहुत बुरा असर पड़ा है। और चूंकि यह हजारों वर्षों
से होता आ रहा है, सो महिलाओं को मालूम हो-न-हो, पर ये सारी बातें अब उनके अन-कोन्शियस
माइंड में समा गई है। और इसी से वे मानसिक तौर पर पुरुषों से दबकर चलने को मजबूर है।
लेकिन आज वक्त आ गया है कि या तो धर्म के ठेकेदार उन्हें सभी ऊंचे पदों पर स्वीकारें
या फिर महिलाएं स्वयं अपने सम्मान और आत्मविश्वास के लिए इन धर्मों को नकारे। जब तक
इन दोनों में से एक बात नहीं होती तब तक महिलाएं अपनी दबने की मानसिकता से पूर्ण रूप
से आजाद नहीं हो सकती है। और तब तक वे पुरुषों से किसी मामले में कम न होने के बावजूद
वे पुरुषों के बराबरी पर सफलताएं हासिल करने की उत्तराधिकारिणी नहीं बन पाएगी। आज विश्व
महिला दिवस पर मैं महिलाओं को उनके सम्मान हेतु बराबरी का अधिकार देने की सभी धर्मों
से गुजारिश करता हूँ। और यदि वे ऐसा नहीं करते तो महिलाओं से अपने आत्मसम्मान हेतु
इनसे जान छुड़ाने की गुजारिश करता हूँ। देखो, कैसे सब लाइन पर आ जाते हैं...।
- दीप त्रिवेदी
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