मनुष्य की वास्तविकता वह क्या बोलता, सोचता या
करता है, में नहीं बल्कि वह सब करते वक्त उसके भाव क्या हैं, उसमें छिपी होती है। और
उसके भावों के अनुसार ही उसका अपना एक ऑरा बनता चला जाता है। यदि उसके भाव नकारात्मक
होंगे तो उसका ऑरा नकारात्मक होगा। फिर वह कितना ही अच्छा बोल-सोच या कर रहा हो उससे
कोई फर्क नहीं पड़ता। इन सबसे वह जगत को धोखा दे सकता है, अपने ऑरा को नहीं। ठीक वैसे
ही बाहर आदमी कड़क भाषा या डांटता-पीटता भी नजर आए परंतु यदि उस डांट-डपट या वापरी गई
कड़क भाषा के पीछे भी उसका भाव सकारात्मक होगा तो उसका ऑरा भी सकारात्मक ही होगा। दूसरा
मनुष्य उसे चाहे जैसा समझे पर उसका ऑरा अपना प्रभाव छोड़ने में कभी गच्चा नहीं खाएगा।
अब
थोड़ा आप अपने जीवन में गौर करें, आपको अपने आसपास के सभी मनुष्यों के ओरों का आसानी
से पता चल जाएगा। जिसका ऑरा सकारात्मक होगा उससे मिलते ही आप ऊर्जा से भर जाएंगे। आपका
उससे संबंध चाहे जो हो, या उसका आपके प्रति व्यवहार कैसा भी हो, आपका मन उससे बार-बार
मिलने को करेगा ही। वहीं दूसरी ओर जिनका ऑरा नेगेटिव होगा, फिर वह कितनी ही मीठी बातें
क्यों न करता हो, उससे मिलने पर आपके मन में उचाट ही पैदा होगा।
चलो
यह तो ओरों की बात हुई। परंतु आपके लिए महत्वपूर्ण यह जानना है कि आपका ऑरा क्या है?
सो यदि सबमें आपसे मिलकर ऊर्जा आती हो, हरकोई आपसे मिलने के मौके खोजता हो (स्वार्थ
या पोजीशन के कारण नहीं), आपको दिखाने के लिए नहीं बल्कि तहेदिल से चाहता हो; तो जान
लो कि आप पोजिटिव ऑरा के व्यक्ति हैं।
खैर
यह सब तो ठीक ही है। यहां समझने लायक प्रमुख बात यह कि कोई आपको दिल से क्यों नहीं
चाहता इस हेतु आप दूसरों से शिकायत करने के अधिकारी नहीं, क्योंकि वह आपके ही ऑरा का
प्रभाव है। सो, सबसे सच्चा प्यार चाहते हो तो भीतर भावों को शुद्ध करो।
दूसरी
समझने वाली बात यह कि जब आपका अपना ही ऑरा आपके नाटकों के धोके में नहीं आता है, तो
फिर सब चीजों का ज्ञाता भगवान आपके चक्कर में कैसे आ सकता है? ...सो वह नहीं ही आ रहा
है। चूंकि आप बिना भाव के रोज मंदिर-मस्जिद जा रहे हैं, इसीलिए वह आपकी सुनता नहीं
है? हमारा समग्र जीवन इस बात का सबूत है। सो अपना उद्धार करना चाहते हो तो नौटंकियों
व शारीरिक कर्मों की जगह अपने भावों की शुद्धता पर ध्यान दो।
और
आपको यदि ओरों के प्रभाव का सबूत चाहिए हों तो बुद्ध, कृष्ण व क्राइस्ट के ऑरा को देखो,
उनके भावों की पवित्रता को देखो जो जगत को अलविदा कहने के इतने वर्षों बाद भी उनका
ऑरा आज भी सबको आकर्षित करने में सफल है। वहीं हिटलर, सिंकदर या औरंगजेब के ऑरों को
देखो, उनसे उनकी मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी लोग नफरत ही करते हैं। यही ऑरा का प्रभाव
है। सो तय आपको करना है कि आप जीते जी कैसे ऑरा में जीना चाहते हो तथा मरने के पश्चात्
कैसा ऑरा छोड़कर जाना चाहते हो।
- दीप त्रिवेदी
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