Wednesday, May 14, 2014

बुद्धपूर्णिमा पर विशेष शेर की भाषा सीखना कब छोड़ोगे? - बुद्ध


मैं बुद्ध, आज से 2500 वर्ष पूर्व अक्सर एक कहानी सुनाया करता था। क्योंकि मैं जहां भी जाता, मेरे ना चाहने और मना करने के बावजूद सब लोग धर्म व भगवान बाबत पूछने से बाज नहीं आते थे। अब ईश्वर, जिसके बाबत वे जानना चाहते थे, उसके अस्तित्व तक से मुझे इन्कार था। सो, क्या जवाब देता? बस बार-बार ईश्वर व धर्म बाबत पूछे जाने पर सबको एक कहानी सुना दिया करता था। और आज वही कहानी मैं आपको भी सुनाता हूँ।

          एक बार एक बुद्धिमान व्यक्ति कहीं से शेर की भाषा सीख आया। अब भाषा सीखी है तो शेरों से बातचीत भी करनी होगी। बस वह जंगल में चला गया। हर आने-जानेवाले शेर से पूछने लगा कि भाई तुम्हारा धर्म क्या है? तुम कौन से ईश्वर को मानते हो? अब ये सारे शब्द ही शेरों के लिए नए थे। बेचारे जवाब न दे पाते। वह आदमी, जो शेरों की मानसिकता और उनके जीवन बाबत रिसर्च करने गया था, बड़ा निराश हुआ...। क्योंकि अबतक वह पच्चीसों शेर से अपने सवाल दोहरा चुका था, लेकिन कोई कुछ नहीं बता पा रहा था। आखिर धीरज खो उसने एक शेर से पूछा-क्या आपमें कोई बुद्धिमान नहीं जो मुझे आपके धर्म व ईश्वर के बाबत बता सके। वह बोला- हममें से तो कोई नहीं बता पाएगा, पर आप हमारे राजा के पास जाओ। ...शायद वह आपकी शंका का समाधान कर दे।

          अंधे को आशा जागी। वह सीधे शेरों के राजा के पास गया। और उसने उससे धर्म व ईश्वर बाबत सवाल दोहरा दिया। साथ ही सामान्य शेरों के अज्ञान पर आश्चर्य भी व्यक्त किया। कमाल शेर है, अपने धर्म व ईश्वर बाबत ही कुछ नहीं जानते।

          इधर शेरों का राजा वाकई समझदार था। वह उसके सवाल और उसके हाव-भाव देख बड़ी जोर से हंसा। और फिर हंसते-हंसते ही बोला- कोई शेर आपके सवाल का जवाब नहीं दिया, क्योंकि उन्हें एक ही बात सिखाई गई है कि बुद्धि के उपयोग से बचो। जब जितनी आवश्यकता पड़े, उतना ही उपयोग करो। और हमें सामान्य परिस्थितियों में बुद्धि के उपयोग की आवश्यकता पड़ती नहीं है। प्रकृति ने हमें जो और जैसा बनाया है, हम उससे संतुष्ट हैं। अपना सहज जीवन जी लेते हैं, और सुखी हैं। इसलिए ना तो हमें धर्म की आवश्यकता पड़ती है और ना ही ईश्वर की जरूरत महसूस होती है। सुना तो यह भी है कि सभी प्राणियों को प्रकृति ने जैसा बनाया है सब उसी से संतुष्ट हैं, एक मनुष्य को छोड़कर। और हमारे ज्ञानी पूर्वज तो यह भी कहते थे कि चूंकि मनुष्य अपने होने से संतुष्ट नहीं है, इसलिए उसे धर्म व ईश्वर की आवश्यकता पड़ती है। वरना बाकी प्राणियों में कोई ईश्वर या धर्म बाबत जानना नहीं चाहता है।

          ...लेकिन तुम मनुष्य बुद्धि का बेवजह उपयोग करते हो। इसलिए असहज जीवन जीने को मजबूर हो जाते हो। और जब असहज जीकर दुःख पाते हो तो आसरे खोजते हो। धर्म का निर्माण करते हो और भगवान की खोज करते हो। इससे और परेशानी मोल लेते हो। समझ नहीं आता कि प्रकृति ने जैसा जीवन दिया है, सीधे-सीधे उसे ही सहजता से क्यों नहीं जी लेते हो? यह बेमतलब की बुद्धि लगाकर धर्म व ईश्वर क्यों खोजते रहते हो? भाई तुम कुछ भी कहो, हम मस्त शेरों को तो तुम्हारी बात समझ में नहीं आती। इसलिए देखो, तुम मनुष्य हमें पिंजरे में बन्द कर प्राणी-संग्रहालय में देखने आ जाते हो, हमारी चाल-ढाल देखने जंगलों में आ जाते हो, पर क्या कभी कोई शेर तुम मनुष्यों को देखने शहर में आया? हमें मनुष्य जैसे दुःखी प्राणियों में कोई जिज्ञासा नहीं। यहां तक कि सर पर न आ जाए तब तक हम उनका शिकार तक करना पसंद नहीं करते हैं। डरते हैं, कहीं उनकी मृत-बुद्धि हमें धर्म व भगवान का भूत न पकड़ा दे। हमारे सहज जीवन को असहज न बना दे। ना बाबा ना...। हमें माफ करो।

          ...जो उस शेर ने उस बुद्धिमान व्यक्ति से कहा वही मैं आप लोगों से कह रहा हूँ। सारी चर्चाएं करो पर धर्म व भगवान की बात मत करो। ...समय तुम्हारा और मेरा दोनों का कीमती है।

 - दीप त्रिवेदी


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