Saturday, May 24, 2014

वाह रे तुम्हारी दुनिया! मेरे नाम पर सबकुछ चल रहा है, पर मैं खुद नहीं चल रहा- कृष्ण


एक दिन मैंने सोचा चारों ओर मेरी कितनी धूम है। मैंने तो अपना पूरा जीवन संघर्ष में बिताया था। ज्ञान के नाम पर भी एक ही बार अर्जुन को गीता सुना पाया था। लेकिन आज तो मेरा जमा हुआ माहौल है। संघर्ष की कोई उम्मीद ही नहीं। तो क्यों न चलकर लोगों को ज्ञान बाटूं। वैसे भी मैंने गीता में कहा ही था कि मैं आप लोगों का उद्धार करने फिर आऊंगा ही। तो इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है?

          बस मैंने पृथ्वी का रुख किया और सीधे बनारस की गलियों में ज्ञान की दुकान खोलकर बैठ गया। अब कृष्ण खुद आया है, यह खबर फैलते ही चारों ओर भीड़ उमड़ पड़ी। यह देख आस-पास जो पंडित दुकान लगाए बैठे थे, उन्हें बड़ा आघात लगा। यदि सब कृष्ण के पास ही चले जाएंगे तो हमारा क्या होगा?

          खैर, मुझे क्या? मैं तो जगत-उद्धार के लिए आया था, कोई इन चन्द मुट्ठीभर पंडितों की चिंता करने तो आया नहीं था। सो, मैंने सबको जीवन को बढ़ाने वाला ज्ञान देना प्रारंभ किया। मैंने एकत्रित भीड़ को संबोधते हुए कहा कि सुख-दुःख, मान-अपमान और पाप-पुण्य को समान समझो। ऐसा समझने से तुम्हारे अनेक कष्ट दूर हो जाएंगे। लेकिन भीड़ शायद कुछ और चाहती थी। उनमें से एक-दो ने जीवन का उद्धार कर देनेवाले चन्द मंत्र देने को कहा।

          मैंने स्पष्ट कहा- ऐसा कोई मंत्र नहीं होता है। मैं तो तुम्हारे मन की स्थिति बदलने वाले मंत्र दे सकता हूँ। विश्‍वास जानो ज्यों ही तुम्हारा मन बदल जाएगा, सबकुछ बदल जाएगा।

          लेकिन शायद स्वयं को बदलने में किसी की रुचि नहीं थी। कोई जादू-टोना मांग रहा था तो कोई किसी विधि बाबत पूछ रहा था। अब मनुष्य संकट में अपने कमजोर मन के कारण है, उसमें कोई विधि या मंत्र कैसे सहायक हो सकते हैं? इलाज उसे मन का करना है और उसी के उपाय मैं बता रहा था, लेकिन परिस्थिति यह थी कि उसे कोई सुनना नहीं चाहता था।

          तभी भीड़ में से दो-चार बोले- छोड़ो, लगता है कृष्ण आउट-डेटेड हो गए हैं। वैज्ञानिक युग का उन्हें कोई अंदाजा ही नहीं है। हमारे लिए तो यह दुकान लगाए बैठे पंडित ही अच्छे हैं। पचास से सौ रुपए में कैसे-कैसे मंत्र व विधियां बता देते हैं।

          ...मैं क्या कहता? फिर भी मैं रहा करुणावान व्यक्ति। सो मैंने सबको समझाने के एक और प्रयासरूप कहा- लेकिन वे विधियां बोगस हैं। वे तो आप सदियों से अपनाते आ रहे हो, कौन-सा तुम लोगों का उद्धार हो गया? लेकिन अब सुनने वाला कोई नहीं था। मेरी दुकान खाली हो चुकी थी। सारी भीड़ आस-पास फैली पंडितों की दुकानों पर लग गई थी।

          बस यह देख मुझे हंसी आ गई। ...और हंसते ही आंख खुली। आंख खुलते ही घबरा गया। हाथोंहाथ तय भी कर लिया कि गीता में जो कहा था वो कहा था, पर दोबारा पृथ्वी पर तो नहीं ही जाना है।


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