दयानंद सरस्वती भारत में एक बहुत बड़ा
नाम है। वे परमयोगी होने के साथ-साथ एक महान विचारक भी थे। मैं आज उनकी याद में आपको
उनके बचपन का एक किस्सा सुनाता हूँ। दरअसल उनके पिता भगवान शंकर के बहुत बड़े भक्त थे।
और उन दिनों शंकर के कई मंदिरों में गणेश की मूर्तियां भी रखी होती थी। बस एक दिन पिता
नन्हें दयानंद को भी अपने साथ मंदिर ले गए थे। अब वहां सबकोई गणेश की मूर्ति पर लड्डू
चढ़ा रहे थे, लेकिन वहीं दो-तीन चूहे भी थे जो बड़े मजे से चढ़ाए लड्डू खा रहे थे। यह
देख नन्हे दयानंद आश्चर्यचकित रह गए, और उन्होंने जिज्ञासावश पिता से पूछा कि यह लड्डू
चूहों को चढ़ाए गए हैं या गणेशजी को? पिता ने कहा- गणेशजी को।
उसपर नन्हें
दयानंद ने तुरंत पूछा- तब तो गणेश अभी अपना क्रोध चूहों पर निकालेंगे।
पिता ने
कहा- नहीं, ऐसा कुछ नहीं होने वाला।
इस पर नन्हें
दयानंद ने दृढ़तापूर्वक कहा- तब तो गणेश की पूजा ही व्यर्थ हो गई। जो अपने हक की रक्षा
नहीं कर सकता वह हमारी रक्षा क्या खाक करेगा?
बस
उस दिन के बाद दयानंद ने ना सिर्फ मूर्तिपूजा त्यागी, बल्कि पूरे भारतवर्ष में मूर्तिपूजा
के सबसे बड़े विरोधी बनकर भी उभरे। और अपनी उसी विचारधारा के बल पर उन्होंने आर्यसमाज
की भी स्थापना की। और आज यह आर्यसमाज भारत के कोने-कोने में फैला हुआ है। ...यानी जीवन
परिवर्तन के लिए और सच्चाई जानने के लिए इंटेलिजेंस की एक गहरी आंख ही काफी है, वरना
तो बिना इंटेलिजेंस वापरे मनुष्य कैसी भी बातें जीवनपर्यंत दोहरा सकता है। लेकिन ध्यान
रहे, फिर वह कभी दयानंद नहीं बन सकता है।
- दीप त्रिवेदी
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