आज मैं
आपको बताता हूँ कि मैंने ज्ञान पाने हेतु क्या किया। यह तो आप जानते ही हैं कि मेरे
जन्म के साथ ही मेरे संन्यासी हो जाने की चर्चा छिड़ गई थी। बस पिताजी ने, मुझे संन्यास
का ख्याल ही न आए, उसकी पूरी व्यवस्था कर डाली। मुझे सुरा और सुंदरियों से लबालब महल
में नजर कैद कर लिया गया। मैं भी वहां अभ्यस्त हो चला था। उसके बाहर कोई दुनिया होती
भी है, इसका अंदाजा ही नहीं था मुझे।
लेकिन
समय ने करवट ली। बड़े होने पर मैंने कुछ बीमार देखे, एक मृत व्यक्ति की शवयात्रा देखी।
मैं चौंक गया। जब शरीर को बीमार होना है, जीवन का अंत होना है तो फिर इस संक्षिप्त
जीवन का अर्थ क्या? बस अर्थ खोजने रातोंरात महल छोड़कर भाग गया। अब जीवन का अर्थ तो
साधु-संत ही बता सकते हैं, यह सोचकर मैं साधु-संतों के यहां भटकना शुरू हो गया। उनका
क्या था; कोई मंत्र पकड़ा देता तो कोई विधि। कोई पूजा पकड़ा देता तो कोई शास्त्र। वर्ष
कटते जा रहे थे पर ज्ञान के नाम पर कुछ हासिल नहीं हो रहा था।
उसी
दरम्यान मेरे पांच और मित्र भी बन गए थे। बस सबके साथ मिलकर ज्ञान पाने हेतु मैंने
भी खाना-पीना पूरी तरह से त्याग दिया था। लेकिन यह ज्यादा दिन रास नहीं आया। मैं तो
सुख के कांटा ही हो गया। परंतु जीवन का सत्य तो जानना ही था। सो हंसते-हंसते यह कष्ट
भी सह रहा था। पर बात बनने की जगह और बिगड़ती चली जा रही थी। शरीर साथ न देने की वजह
से कुछ मजा भी नहीं आ रहा था। बस मैंने अनशन को छोड़ा व जमकर खाना-पीना शुरू कर दिया।
सीधी बात है, जान है तो जहान है। उधर मेरे साथियों ने सोचा कि गौतम राह से भटक गया
है। उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। छोड़ने दो, पर मैंने तो सबका साथ छोड़ दिया था। परिवार
व राजपाट तो पहले ही छोड़कर निकला था, और अब साधु, संन्यासी, शास्त्र व ज्ञान पाने के
चक्कर भी त्याग दिए थे। अब खाओ-पीयो और मस्ती से घूमो।
बस
ऐसे ही एक दिन घूमते-घूमते जिसे आप बोधि-वृक्ष कहते हैं, के नीचे बैठा था कि अचानक
ज्ञान हो गया। सत्य प्रकट हो गया। फिर क्या था, मैंने अपना यह अनुभव इमानदारी से सबसे
बांटा। उस समय भारत-वर्ष में सिर्फ हिंदू धर्म अस्तित्व में था। और मुझे ज्ञान तमाम
शास्त्रों, तमाम तंत्र-मंत्र व विधि-विधानों को त्याग कर प्राप्त हुआ था। सहज भोजन
व स्वस्थ शरीर के कारण प्राप्त हुआ था। और जीवन का सत्य भी यही है कि इच्छा, रिश्ते,
धन व सम्मान का मोह ही नहीं, शास्त्र, तंत्र-मंत्र, विधि-विधान व भगवान भी बंधन ही
है। ...बल्कि वह ज्यादा गहरा और बड़ा बंधन है। और मेरी ज्ञान-प्राप्ति से उत्पन्न करुणा
किसी को ऐसे बंधन में जीवन बर्बाद करते कैसे देख सकती थी? मैंने सबको मान-सम्मान या
रिश्तों के मोह से ही नहीं, धर्म, शास्त्र और भगवान के मोह से भी छुड़वाने की बहुत कोशिश
की। बात हिंदू धर्म के खिलाफ जान पड़ने पर मेरा खूब विरोध भी हुआ, परंतु जो सही है वो
सही है...और वह यही है। यह सब भी छोडूं तो मुद्दे की बात यह कि मैंने तो पच्चीस सौ
वर्ष पूर्व निर्वाण पा लिया, मुक्त हो गया; पर आप कब होएंगे? आप मुक्त हो सकें, इसी
करुणा से भरकर आज मैंने आपको मेरे गौतम से गौतम बुद्ध होने की यह पूरी दास्तान सुनाई
है। मैं हाथ पसारे आपका इन्तजार कर रहा हूँ, तमाम बंधनों से मुक्त हो जाइए और मेरी
श्रेणी में शामिल हो जाइए।
- दीप त्रिवेदी
No comments:
Post a Comment