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इस संसार में वस्तु हो या व्यक्ति, घटना हो या वारदात, सबके मूल में सायकोलोजी ही है। यह सायकोलोजी ही है जो सबसे सबकुछ करवा रही है। यानी सायकोलोजी ही वो परमकारण है जिसके चलते सबकुछ घटता है। अतः सत्य की तह तक सिर्फ सायकोलोजी की विधि से एनालिसिस करके ही पहुंचा जा सकता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि व्यक्ति के हर कर्म व हर घटना का कारण चूंकि सायकोलोजी है, अतः सायकोलोजिकल विश्लेषण के द्वारा उस घटना से संबंधित भूतकाल को खंगाला जा सकता है तथा भविष्य की संभावनाएं भी तलाशी जा सकती हैं। ...और उसे ही सायकोएनालिसिस कहते हैं।
सायकोएनालिसिस यानी सत्य की खोज। यदि आपको यह सायकोएनालिसिस करना आ जाए तो निश्चित ही आप अपने को हर घटना के सत्य के आसपास पाएंगे। और कहने की जरूरत नहीं कि सत्य के निकट होना, व्यवसाय हो या जीवन, संभावनाओं के बेहतर द्वार खोल ही देता है। सो मैं यहां सिर्फ इस उद्देश्य से इस घटना की सायकोएनालिसिस कर रहा हूँ कि आप भी सायकोएनालिसिस करना सीख जाएं। कहने का तात्पर्य इस समय यहां मैं वर्तमान में चर्चित आसाराम-प्रकरण का सिर्फ सहारा ले रहा हूँ। अतः आप इसे सायकोएनालिसिस बाबत कुछ बातें समझाने की एक कोशिश के रूप में देखें तो बेहतर होगा।
...यहां यह बात भी ध्यान रख लेना कि आप किसी भी व्यक्ति या घटना की सायकोएनालिसिस करना चाहते हैं तो आपको सौ-फीसदी निष्पक्ष रहना होगा। यदि आपका पहले से कोई पक्ष है यानी आप बायस्ड हैं तो सायकोएनालिसिस कभी नहीं कर सकते हैं। ...सो अब मैं निष्पक्षतापूर्वक इस घटना की सायकोएनालिसिस करता हूँ।
...अब आसारामजी पर जो आरोप लगे हैं वे सही हैं या गलत, अभी इसका फैसला होना बाकी है। सो उसे हम साइड में रखते हैं। लेकिन कई ऐसी सायकोलोजिकल सिक्वंस इस तथ्य से जुड़ी हुई है जिन्हें समझना खास जरूरी है। सबसे पहला तथ्य तो यह कि जब लोकसभा में महिला-सुरक्षा बिल विचाराधीन था तब आसारामजी ने बयान दिया था कि इससे तो महिलाओं की ब्लेकमेलिंग प्रवृति बढ़ेगी। ...यानी वे झूठे केस करना प्रारंभ हो जाएगी। अब सायकोलोजी कहती है कि मनुष्य के मुख से कोई भी बात अनायास नहीं निकलती है। ...तो क्या आसारामजी का यह बयान चोर की दाढ़ी में तिनका वाली बात तो नहीं थी?
खैर होगा? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि आरोप लगते ही जोधपुर आश्रम ने कह दिया कि वारदात के दिन वे जोधपुर में ही नहीं थे। फिर कहा गया कि थे, लेकिन लड़की से मिले ही नहीं। उनके पुत्र से लेकर जिसको जब मौका मिला, उनके बचाव में झूठ बोलते चले गए। चलो, अपने बचाव का सबको अधिकार है, परंतु सवाल यही कि झूठ की आवश्यकता ही क्या? आसारामजी का कद इतना ऊंचा है कि वे लड़की के साथ अकेले में दो-चार घंटे रह भी लिए तो क्या? क्या वे शिष्या के साथ नहीं रह सकते? क्या वे किसी को ज्ञान नहीं दे सकते? तो फिर झूठ-सच और सफाइयों की आवश्यकता क्यों पड़ी? शायद इसलिए कि उनके पुत्र समेत किसी को उनके चाल-चलन पर भरोसा न रहा हो। ...वरना बुद्ध ने भी एक रात वेश्या के यहां बिताई ही थी। ...आप बुद्ध हैं तो अड़चन कहां?
तीसरी और महत्वपूर्ण बात यह कि इस बात की भी संभावना कम है कि कोई 72 वर्षीय व्यक्ति सीधे पहली बार यह कृत्य करे। सायकोलोजी के दायरे में तो संभावना इसी बात की ज्यादा बनती है कि या तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है, या फिर ऐसा सब होता रहा है। यदि सब होता रहता होगा, तब तो जो अबतक किसी डर से चुप बैठे होंगे उनके भी आगे प्रकट होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
अब चौथा और महत्वपूर्ण सवाल यह भी कि बार-बार साधु-संतों पर ऐसी विकृतता के आरोप लगते क्यों हैं? उनमें से कई सिद्ध भी होते ही हैं। यह समस्या सिर्फ भारत की ही नहीं बल्कि विश्वभर के धर्मसमुदायों की है। तो ऐसा इस आम मान्यता के कारण कि साधु मतलब स्त्री से दूर...। अब उस बेचारे साधु का भीतरी सत्य तो वही जानता है, परंतु वह साधु है ही इसलिए कि उसे आपकी मान्यता पर खरा उतरना होता है। सो भीतर दबाव होने पर भी वह किसी को दोस्ती करने का प्रस्ताव तो दे नहीं सकता। किसी के साथ खुलेआम घूम फिर नहीं सकता। ...वरना तो आप उससे उसका साधुपन ही छीन लेंगे। वहीं जो भीतर है उससे मनुष्य भाग भी नहीं सकता है। बस उनसे मौके-बे-मौके ऐसी विकृतता हो जाती है। और इस समस्या के दो ही उपाय हैं; या तो आप यह स्वीकार लें कि साधु की भी जरूरतें हो ही सकती हैं, या फिर जो शौकीन हों वे साधु बनने का खयाल दिल से निकाल दें। और जबतक इनमें से एक भी बात अमल में न लाई जाए तब तक इस समस्या का कोई समाधान नहीं।
खैर, वैसे तो इस प्रकरण की और भी गहरी सायकोएनालिसिस की जा सकती है। परंतु अभी तो मैंने आपको घटना की उपरा-ऊपरी सायकोएनालिसिस समझाई। ...पक्ष नहीं लेना है, सिर्फ सायकोलोजिकल संभावनाएं टटोलनी हैं। वो मैंने टटोल के आपके सामने रख दी। आगे तो हम सभी को सत्य के बाहर आने का इंतजार ही करना है।
इस संसार में वस्तु हो या व्यक्ति, घटना हो या वारदात, सबके मूल में सायकोलोजी ही है। यह सायकोलोजी ही है जो सबसे सबकुछ करवा रही है। यानी सायकोलोजी ही वो परमकारण है जिसके चलते सबकुछ घटता है। अतः सत्य की तह तक सिर्फ सायकोलोजी की विधि से एनालिसिस करके ही पहुंचा जा सकता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि व्यक्ति के हर कर्म व हर घटना का कारण चूंकि सायकोलोजी है, अतः सायकोलोजिकल विश्लेषण के द्वारा उस घटना से संबंधित भूतकाल को खंगाला जा सकता है तथा भविष्य की संभावनाएं भी तलाशी जा सकती हैं। ...और उसे ही सायकोएनालिसिस कहते हैं।
सायकोएनालिसिस यानी सत्य की खोज। यदि आपको यह सायकोएनालिसिस करना आ जाए तो निश्चित ही आप अपने को हर घटना के सत्य के आसपास पाएंगे। और कहने की जरूरत नहीं कि सत्य के निकट होना, व्यवसाय हो या जीवन, संभावनाओं के बेहतर द्वार खोल ही देता है। सो मैं यहां सिर्फ इस उद्देश्य से इस घटना की सायकोएनालिसिस कर रहा हूँ कि आप भी सायकोएनालिसिस करना सीख जाएं। कहने का तात्पर्य इस समय यहां मैं वर्तमान में चर्चित आसाराम-प्रकरण का सिर्फ सहारा ले रहा हूँ। अतः आप इसे सायकोएनालिसिस बाबत कुछ बातें समझाने की एक कोशिश के रूप में देखें तो बेहतर होगा।
...यहां यह बात भी ध्यान रख लेना कि आप किसी भी व्यक्ति या घटना की सायकोएनालिसिस करना चाहते हैं तो आपको सौ-फीसदी निष्पक्ष रहना होगा। यदि आपका पहले से कोई पक्ष है यानी आप बायस्ड हैं तो सायकोएनालिसिस कभी नहीं कर सकते हैं। ...सो अब मैं निष्पक्षतापूर्वक इस घटना की सायकोएनालिसिस करता हूँ।
...अब आसारामजी पर जो आरोप लगे हैं वे सही हैं या गलत, अभी इसका फैसला होना बाकी है। सो उसे हम साइड में रखते हैं। लेकिन कई ऐसी सायकोलोजिकल सिक्वंस इस तथ्य से जुड़ी हुई है जिन्हें समझना खास जरूरी है। सबसे पहला तथ्य तो यह कि जब लोकसभा में महिला-सुरक्षा बिल विचाराधीन था तब आसारामजी ने बयान दिया था कि इससे तो महिलाओं की ब्लेकमेलिंग प्रवृति बढ़ेगी। ...यानी वे झूठे केस करना प्रारंभ हो जाएगी। अब सायकोलोजी कहती है कि मनुष्य के मुख से कोई भी बात अनायास नहीं निकलती है। ...तो क्या आसारामजी का यह बयान चोर की दाढ़ी में तिनका वाली बात तो नहीं थी?
खैर होगा? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि आरोप लगते ही जोधपुर आश्रम ने कह दिया कि वारदात के दिन वे जोधपुर में ही नहीं थे। फिर कहा गया कि थे, लेकिन लड़की से मिले ही नहीं। उनके पुत्र से लेकर जिसको जब मौका मिला, उनके बचाव में झूठ बोलते चले गए। चलो, अपने बचाव का सबको अधिकार है, परंतु सवाल यही कि झूठ की आवश्यकता ही क्या? आसारामजी का कद इतना ऊंचा है कि वे लड़की के साथ अकेले में दो-चार घंटे रह भी लिए तो क्या? क्या वे शिष्या के साथ नहीं रह सकते? क्या वे किसी को ज्ञान नहीं दे सकते? तो फिर झूठ-सच और सफाइयों की आवश्यकता क्यों पड़ी? शायद इसलिए कि उनके पुत्र समेत किसी को उनके चाल-चलन पर भरोसा न रहा हो। ...वरना बुद्ध ने भी एक रात वेश्या के यहां बिताई ही थी। ...आप बुद्ध हैं तो अड़चन कहां?
तीसरी और महत्वपूर्ण बात यह कि इस बात की भी संभावना कम है कि कोई 72 वर्षीय व्यक्ति सीधे पहली बार यह कृत्य करे। सायकोलोजी के दायरे में तो संभावना इसी बात की ज्यादा बनती है कि या तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है, या फिर ऐसा सब होता रहा है। यदि सब होता रहता होगा, तब तो जो अबतक किसी डर से चुप बैठे होंगे उनके भी आगे प्रकट होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
अब चौथा और महत्वपूर्ण सवाल यह भी कि बार-बार साधु-संतों पर ऐसी विकृतता के आरोप लगते क्यों हैं? उनमें से कई सिद्ध भी होते ही हैं। यह समस्या सिर्फ भारत की ही नहीं बल्कि विश्वभर के धर्मसमुदायों की है। तो ऐसा इस आम मान्यता के कारण कि साधु मतलब स्त्री से दूर...। अब उस बेचारे साधु का भीतरी सत्य तो वही जानता है, परंतु वह साधु है ही इसलिए कि उसे आपकी मान्यता पर खरा उतरना होता है। सो भीतर दबाव होने पर भी वह किसी को दोस्ती करने का प्रस्ताव तो दे नहीं सकता। किसी के साथ खुलेआम घूम फिर नहीं सकता। ...वरना तो आप उससे उसका साधुपन ही छीन लेंगे। वहीं जो भीतर है उससे मनुष्य भाग भी नहीं सकता है। बस उनसे मौके-बे-मौके ऐसी विकृतता हो जाती है। और इस समस्या के दो ही उपाय हैं; या तो आप यह स्वीकार लें कि साधु की भी जरूरतें हो ही सकती हैं, या फिर जो शौकीन हों वे साधु बनने का खयाल दिल से निकाल दें। और जबतक इनमें से एक भी बात अमल में न लाई जाए तब तक इस समस्या का कोई समाधान नहीं।
खैर, वैसे तो इस प्रकरण की और भी गहरी सायकोएनालिसिस की जा सकती है। परंतु अभी तो मैंने आपको घटना की उपरा-ऊपरी सायकोएनालिसिस समझाई। ...पक्ष नहीं लेना है, सिर्फ सायकोलोजिकल संभावनाएं टटोलनी हैं। वो मैंने टटोल के आपके सामने रख दी। आगे तो हम सभी को सत्य के बाहर आने का इंतजार ही करना है।
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