Monday, November 18, 2013

कोन्शियस का ठिकाना


 - ए भाई! कहां घुसे चले आ रहे हो?
     तुम हो कौन?
 - मैं! मैं आपका कोन्शियस हूँ।
 - तो तुम यहां क्या कर रहे हो?
     तुमको तो मैं मंदिर-मस्जिद छोड़ आया था न?
 - छोड़ तो आए थे, पंरतु वहां मैं किस काम का?
     मेरा तो मतलब ही इन्सान के भीतर रहने से है।
 - देखो, बचपन तक ठीक था। लेकिन उसके बाद तुम खतरनाक हो। आज मेरे ठाठ-बाट और पोजिशन देखो
     यह सब मैंने झूठ, बदमाशी और बेइमानी के बल पर प्राप्त किया है
     तुम्हें अपने साथ रखकर क्या यह सब मैं पा सकता था?
     तुम्हें साथ रख लिया तो यह सब वापस नहीं लुट जाएगा?
     क्या तुम मुझे सच-झूठ करने दोगे?
 - नहीं, वह सब तो मेरे होते-सोते संभव नहीं।
 - बस तो फिर चुपचाप मंदिरों और मस्जिदों में पड़े रहो
     चर्चों में घूमते रहो
     मैं हफ्ते में एकाध बार तुमसे मिलने आ जाया करूंगा
     साथ में तुम्हारे लिए हार-फूल व चढ़ावा भी ले आया करूंगा
     मुझे यह गुमान भी तो होना चाहिए
     कि मैं अपने कोन्शियस का अच्छे से खयाल रखता हूँ।
 - लेकिन मेरा वहां दम घुटता है।
 - अरे, इतने शानदार मंदिर-मस्जिद बनवाकर हम तुम्हें वहां रखे हुए हैं। अच्छा एक बात बताओ
     यदि कोई तुम्हें चौबीस घंटे साथ में रखा पाता
     तो फिर उसे मंदिर, मस्जिद, चर्च या भगवान की जरूरत ही क्या थी?
 





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