तो
फिर क्यों दूसरों की देखा-देखी सबकुछ करने की कोशिश करते हो। किसी ने नया घर लिया तो
खुद भी उस चक्कर में घूमने लग जाते हो। किसी ने शादी की तो खुद भी शादी करने को बेचैन
हो उठते हो। कोई पढ़ाई के लिए अमेरिका गया तो तुम भी अमेरिका जाने को मचल जाते हो। क्यों
यह सब कर अपने सुखी जीवन में आग लगाते हो? सीधी बात क्यों नहीं समझते कि दूसरा...दूसरा
है और तुम, तुम हो। उसका जीवन अलग है-तुम्हारा जीवन अलग है। इन सब चक्करों में पड़कर
जीवनभर दुःखी व बेचैन रहने के सामान क्यों खोजते हो? आखिर ऐसा क्यों...? क्या तुम्हारी
अपने से कोई शत्रुता है?
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दीप त्रिवेदी
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