मंदिर के बाहर एक व्यक्ति ने बोर्ड पढ़ा-
2100 में क्रोध का परमानेंट इलाज कीजिए।
बेचारा अपने क्रोधित स्वभाव से बड़ा परेशान था। उसने पंडित को 2100 देकर इलाज शुरू किया। परंतु विधि-विधान से कहीं क्रोध से छुटकारा मिलता? सो विधि निपट जाने पर उसने पंडित से कहा, “आपकी विधि तो पूरी हो गई, परंतु मेरा क्रोध कम हुआ हो ऐसा नहीं लगता है।” पंडित ने कहा, “विधि तो सफल रही है। बाकी रहा सवाल क्रोध का, तो वह तो पहले से आपमें था ही।”
अब यह मनुष्य, जो पहले से ही क्रोधित स्वभाव वाला था, पंडित की बात सुनकर उसका पारा और भी चढ़ गया। लेकिन किसी तरह अपने पर नियंत्रण रखते हुए उसने पंडित से कहा, “देखो, मैंने आपको क्रोध से छुटकारा पाने हेतु 2100 दिए। पंडित ने कहा, “हां दिए।” वह आदमी बोला, “लेकिन मुझे क्रोध आ रहा है।” पंडित बोला, ” वह तो आपको पहले से आ रहा था, इसमें विधि का कोई दोष नहीं।”
…यह सुन पहले से ही क्रोधित आदमी और पगला गया, फिर भी सवाल 2100 का था! सो पूरा प्रयास कर उसने बड़ी शांति से पंडित से कहा, “देखिए, मैं अपने क्रोध से छुटकारा चाहता था और उस हेतु मैंने आपको 2100 दिए।” पंडित बोला, ” हां दिए।” वह आदमी बौखलाता हुआ बोला, “लेकिन मुझे क्रोध से छुटकारा नहीं मिला है”
पंडित बोला, “लेकिन उसमें विधि क्या करेगी? आपका क्रोध का स्वभाव तो विधि प्रारंभ करने से पहले का था।”
…अब हद हो गई। उधर पंडित भी बार-बार तर्क किए जाने से परेशान था ही। बस दोनों में मारपीट हो गई।
मंदिरों-मस्जिदों में ऐसे ही इलाज होते हैं। रुपए भी जाते हैं और खाली हाथ लौट भी आते हैं। साधारण बुद्धि की बात यह कि मन की बीमारियों के भी कहीं विधि-विधान से इलाज होते हैं?
- दीप त्रिवेदी
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